बिहार विभूति आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा के ललित निबंधों का एक और संग्रह आप तक पहुँच रहा है। अपने ललित निबंधों के बारे में चर्चा करते हुए अपनी पुस्तक सत्यम् शिवम् में वे कहते हैं -
"रचना-क्रम में, सृजन-अवधि में मेरी दृष्टि बड़ी व्यापक रही है, मैंने हर घटना, स्थिति, वस्तु, व्यक्ति, मनःस्थिति, भावस्थिति को बड़े व्यापक परिपेक्ष्य मे देखने की कोशिश की है - कहीं कहीं तो मेरी दृष्टि असीम अनन्त पर जा टिकी है। इसलिए केवल एक ही निबंध में आप बहुत कुछ या सारा कुछ पा सकते हैं। और मैं विधा, वस्तु, भाषा-शैली, दर्शन-दृष्टि, अनुभव-अनुभूति सभी दृष्टियों से एक खास तरह की मौलिकता का दावा कर सकता हूँ। मैंने दूसरों से कम ही कुछ लिया है या लेने की कोशिश की है अपने को ही भरपूर समझ और उसे प्रकाशित करने की भरपूर कोशिश की है।"
अपने ललित निबंधों के बारे में आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा के उपरोक्त विचार उचित एवं सटीक प्रतीत होते हैं। उनकी भाषा-शैली में मौलिकता है, आविष्कारशीलता है, नवीनता है, विलक्षणता है -और साहित्यकारों से पृथक, और रचनाकारों से नितांत भिन्न।
आचार्य रवीन्द्रनाथ ओझा की अनमोल साहित्यिक कृतियाँ काल के गाल में समां जातीं, नष्ट-विनष्ट हो जातीं, अप्रकाशित रह जातीं अगर मेरी दृष्टि उन पर नहीं पड़ती, अगर मैंने उनको इधर-उधर से खोज कर नहीं निकाला रहता, अगर उनको सुरक्षित एवं संरक्षित नहीं रखता, अगर धुंधले होते हुए हस्तलिपि को सम्यक-समुचित सुधार के साथ पुनर्स्थापित नहीं करता, अगर उनको स्वयं टंकित नहीं करता, और संकलित कर अपने खर्चे से पुस्तक के रूप में एक एक कर प्रकाशित नहीं करता । अत्यंत दुरूह, दुःसाध्य, दुष्कर कार्य है ये। पर माता-पिता के आशीर्वाद से तथा ईश्वर की कृपा से उम्र के इस पड़ाव पर न जाने कहाँ से इतनी ऊर्जा उत्पन्न हो गयी है कि मैं इस असंभव यज्ञ को किए जा रहा हूँ- साहित्य को समृद्ध किए जा रहा हूँ, नागरी लिपि का प्रचार-प्रसार किए जा रहा हूँ और भारतीय संस्कार एवं संस्कृति को भी सम्पन्न किए जा रहा हूँ। और करते रहूँगा तब तक जब तक कि ऊपर वाले का हाथ मुझ पर है अभी बहुत कुछ करना है, बहुत कुछ प्रकाशित करना है और आपके पास पहुँचाना है।